कौटिलीय अर्थशास्त्र में वर्णित स्वधर्म संकल्पना

भारतीय समाज चार वर्णों में विभक्त है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र l मनुष्य का जीवन भी चार आश्रमों में विभक्त है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ये दो – वर्ण एवं आश्रम (वर्णाश्रम) – भारतीय समाज के आधार स्तम्भ हैं। शताब्दियों से वर्ण एवं आश्रम में बंधा हुआ भारतीय समाज प्राचीनतम सभ्यताओं के आंतरिक मूल्यों का पोषण करता रहा है। प्राचीन काल से ही जटिल परन्तु अतिसुन्दर भारतीय संस्कृति ने सम्पूर्ण संसार को मंत्रमुग्ध किया है। यह वर्णाश्रम का उपहार है।

‘स्वधर्म’ एक ऐसा शब्द है जिसका सीधा अनुवाद संभव नहीं। इसके दो भाग हैं, एक ‘स्व’ और दूसरा ‘धर्म’। पुनः ‘धर्म’ शब्द का सीधा अनुवाद संभव नहीं। ‘स्व’ का अनुवाद ‘स्वयं’ या ‘स्वतः’ हो सकता है परन्तु यहाँ इसका अर्थ विशिष्ट / निश्चित है। प्रसङ्गानुसार धर्म के अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं। इस लेख में ‘धर्म’ का अर्थ ‘कर्तव्य’ या ‘उत्तरदायित्व’ तक ही सीमित है। अतः इस लेख में ‘स्वधर्म’ का अर्थ ‘विशिष्ट / निश्चित कर्तव्य’ या ‘उत्तरदायित्व’ समझा जा सकता है।

इस लेख का प्रयोजन उपरोक्त चार वर्णों एवं आश्रमों के स्वधर्म को कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार विस्तार से चित्रित करना है। इस लेख में राजा द्वारा उसके साम्राज्य में स्वधर्म के संरक्षण एवं प्रबंध में उसकी भूमिका का भी वर्णन किया गया है।

त्रयी और स्वधर्म

अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्रों का ही एक अंग है। धर्मशास्त्रों के अंदर वेद एवं सम्पूर्ण वैदिक साहित्य (श्रुति), स्मृतिग्रन्थ, धर्मसूत्र, अर्थशास्त्र और कामसूत्र आते हैं। इन विषयों पर सदियों से लिखे गए साहित्य, पूर्व-आधुनिक एवं आधुनिक काल के साहित्य संग्रह भी धर्मशास्त्र के ही अंग हैं।

उपरोक्त सभी ग्रंथों में धर्म का एक ही आधार है और वह है वेद। कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में धर्म का आधार वेदों को ही बताया है। उन्होंने ऋग्वेद, आयुर्वेद एवं सामवेद को त्रयी कहा है [1]। अगली सूक्ति में कौटिल्य ने अथर्ववेद और इतिहास को एक वर्ग में रखा है। इस तरह से यह निष्कर्ष निकलता है कि चतुर्वेद एवं इतिहास, ज्ञान के प्रारंभिक स्रोत हैं [2]।

इतिहास की परिभाषा भी इसमें स्पष्ट बताई गयी है। कौटिल्य के अनुसार पुराण, रामायण, महाभारत, महान व्यक्तियों का जीवन वृतांत, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र का समग्र स्वरूप इतिहास कहलाता है [3]।

कौटिल्य ने ज्ञान के स्रोतों को विस्तार से बताते हुए वेदों के छः अंग (छः वेदाङ्ग) बताये हैं – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष [4]। वेदों को समझने के लिए इन छः वेदांगों को समझना आवश्यक है।

ज्ञान के स्रोतों को विस्तार से बताने के बाद कौटिल्य ने त्रयीधर्म (त्रयी द्वारा निर्धारित कर्तव्य या उत्तरदायित्व) पर ध्यान दिया है। उन्होंने त्रयीधर्म को स्वधर्म का मूल माना है। इसका कारण यह बताया गया है कि त्रयीधर्म न केवल स्वधर्म की स्थापना करता है बल्कि स्वधर्म को अक्षुण्ण भी बनाये रखता है [5]।

ब्राह्मण का स्वधर्म

कौटिल्य ने सबसे पहले ब्राह्मणों के स्वधर्म का वर्णन किया है [6]। ब्राह्मणों के स्वधर्म (निर्धारित कर्तव्य या उत्तरदायित्व) निम्नलिखित हैं –

  • अध्ययन
  • अध्यापन
  • यज्ञ करना और करवाना
  • दान देना और लेना

पहले दो कर्तव्य /उत्तरदायित्व शिक्षा से सम्बंधित हैं जो अध्यापक एवं प्रशिक्षक आदि के सन्दर्भ में है। ऐसे व्यक्ति प्रारंभिक स्तर से उच्च स्तर तक शिक्षा देने के लिए उत्तरदायी होते हैं। अध्यापक एवं प्रशिक्षक अपने गुरुओं से जो शिक्षा प्राप्त करते हैं वही ज्ञान वो अपने शिष्यों को प्रदान करते हैं। यह परंपरागत शिक्षा प्रणाली कौटिल्य के समय से ही शिक्षा जगत का मूल स्तम्भ है । कौटिल्य स्वयं इसी परंपरागत शिक्षा प्रणाली की उपज थे।

पुरोहित एवं दूसरे कुशल ब्राह्मणों का प्राथमिक कर्त्तव्य यज्ञ करना था। यज्ञों का आयोजन व्यापारी वर्ग और राजा (वैश्य, शूद्र और क्षत्रिय) द्वारा समाज एवं स्वयं के कल्याण के लिए होता था। पुरोहितों और ब्राह्मणों का जीवन पूर्णतः इन्हीं क्रियाकलापों पर आश्रित था क्योंकि उन्होंने अपना पूरा जीवन इन्हीं कर्तव्यों के निर्वहन में समर्पित कर दिया था। वे त्रयी की परम्परा को आगे बढ़ा रहे थे।

दान लेना, भिक्षा लेने के समान नहीं था। दान उन ब्राह्मणों को दिया जाता था जो ज्ञान बाँटने (या शिक्षण) का कार्य करते थे और उन पुरोहितों को दिया जाता था जो त्रयी की परंपरा को आगे बढ़ा रहे थे। दान की राशि तय करने का कोई नियम नहीं था l यह छोटी-मोटी भेंट से लेकर कोई भूखंड तक भी हो सकता था। ब्राह्मणों द्वारा उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए किसी तरह का शुल्क तय करना निषिद्ध था। किसी शिक्षण संस्थान को राजा या व्यापारी द्वारा दान देना बहुत सामान्य था। ऐसे दानों का उल्लेख हमें शिलालेखों में भी मिलता है।

ब्राह्मण भी दान दिया करते थे। संभवतः राजपुरोहित एवं सक्षम पुरोहित दान करने में समर्थ थे। इसमें ऐसे ब्राह्मण भी आते थे जिन्हें राजदरबार से अच्छा पारिश्रमिक एवं अन्य संपत्ति प्राप्त होती थी। यह ब्राह्मण बहुमुखी प्रतिभा के धनी होते थे और राजा एवं मंत्रियों को युद्ध, शासन, प्रबंधन आदि में भी मार्गदर्शन करते थे।

क्षत्रिय का स्वधर्म

क्षत्रिय के निम्नलिखित कर्तव्य हैं [7] :

  • अध्ययन
  • यज्ञ करवाना
  • दान देना
  • शस्त्र द्वारा जीविका अर्जित करना
  • राज्य के समस्त लोगों/प्राणियों की रक्षा करना

युद्ध कला, शस्त्र, राजनीति, शासन/ प्रबंधन, सभ्यता एवं संस्कृति के अन्य पहलुओं का योग्य ब्राह्मण से अध्ययन क्षत्रियों का प्रथम कर्तव्य था। वे अपने परिवार/परंपरा के बड़े एवं अनुभवी लोगों द्वारा भी सीखते थे। ऐसी शिक्षा उन्हें उनके अन्य दो कर्तव्यों, यज्ञ एवं दान, के उचित समझ एवं उनके कुशल निष्पादन के लिए योग्य बनाती थी। अतः योद्धा वर्ग द्वारा ब्राह्मणों को सम्मान/दान देना स्वाभाविक था।

शस्त्रचालन एवं योद्धा की तरह जीवन यापन क्षत्रियों का प्रथम कर्त्तव्य था। राज्य की सुरक्षा इकाई (सैन्य टुकड़ी) कुशल योद्धाओं द्वारा बनाइ जाती था। शस्त्र निर्माण, धातुकर्म एवं शस्त्रों का रखरखाव, प्रशिक्षण शिविर आदि क्षत्रियों के व्यवसाय और कार्य होते थे। इस तरह से प्रत्येक राज्य आयुध निर्माण एवं धातुकर्म उद्योग में संपन्न थे। यह उद्योग समाज/राज्य में अन्य लोगों को आजीविका प्रदान करने के लिए उत्तरदायी थे। व्यक्ति, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, भूखंड, भू-उत्पाद एवं खनिज, भूमार्ग, जलमार्ग, विश्रामगृह, पर्यावरण, गुप्तचर इत्यादि सभी चीजों की सुरक्षा राजा का मुख्य कर्तव्य होता था। कौटिल्य ने कई अध्यायों में उपरोक्त सभी के प्रबंध एवं सुरक्षा के बारे में विस्तारपूर्वक बताया है। अतः वर्णव्यवस्था में क्षत्रियों का महत्वपूर्ण योगदान था जो उनके स्वधर्म पर केंद्रित था।

वैश्य का स्वधर्म

वैश्य के उत्तरदायित्व [8]:

  • अध्ययन
  • यज्ञ करवाना
  • दान देना
  • कृषि एवं पशुपालन
  • व्यापार

क्षत्रियों की भांति हीं त्रयी की परंपरा का अध्ययन एवं पालन करना वैश्यों का भी कर्त्तव्य था। उपरोक्त कर्त्तव्यों में प्रथम तीन इसी को प्रदर्शित करते हैं। कृषि, पशुपालन एवं व्यापार किसी भी राज्य की अर्थव्यवस्था के आधारस्तंभ होते थे। भूमि के बिना कृषि, पशुपालन एवं व्यापार संभव नहीं था। भूमि में नदियाँ एवं अन्य जल स्रोत, जंगल-मरुस्थल (यदि कोई था) आदि भी शामिल है। क्षत्रिय (योद्धा वर्ग) इनके प्रबंध एवं सुरक्षा के लिए उत्तरदायी था। वहीं व्यापारी वर्ग उत्पादन एवं उत्पाद की आपूर्ति के लिए उत्तरदायी होता था। कृषि एवं पशुपालन राज्य के अंदर हीं होने वाले कार्य थे जबकि व्यापार अंतर्राज्यीय होते थे। कौटिल्य ने जलमार्गाधारित, जंगल, वस्त्र एवं अन्य उद्योगों का वर्णन किया है। बहुत सारे व्यापारी अपने व्यापार के लिए विदेशों/दूसरे भूखंडों की यात्रा करते थे। व्यापारी वर्ग, समाज में पैसों के प्रसार या विनिमय के लिए उत्तरदायी था। पैसा त्रयी के निर्वहन का प्रमुख कारण था। त्रयी हीं लोगों को उनके कर्तव्य निर्वहन के योग्य बनाता था।

शूद्रों का स्वधर्म

शुद्र का उत्तरदायित्व [9] :

  • द्विजाति सुश्रुषा (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य की सेवा और उनसे सीखना)
  • वार्त्ता
  • कारूकुशीलवकर्म (प्रदर्शन/अप्रदर्शन कला से संबंधित कार्य)

वेद-अध्ययन शुद्रों के लिए नहीं था परंतु उन्हें अन्य तीन वर्णों से ज्ञान प्राप्त करना था। यदि आपको स्वयं अध्ययन नहीं करना हो तो ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र उपाय सेवा करना है, अतः शूद्रों को धर्मशास्त्रों में सेवा करने की सलाह दी गई थी ताकि वे ज्ञान प्राप्त कर सकें। सेवा करने के लिए त्रयी में श्रद्धा की आवश्यकता होती है अतः शुद्र केवल श्रद्धा द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकते थे।

इन सेवाओं का व्याप बहुत विस्तृत था जो स्वच्छता से लेकर दूसरे वर्णों को उनके कार्यों में सहयोग करने तक हो सकता था। सामान्यतः किसी कार्य के लिए कौन उपयुक्त है यह उसकी योग्यता द्वारा निर्धारित किया जाता था। शुद्र द्वारा ज्ञानार्जन इस बात पर निर्भर करता था कि वह किसे, कितने समय तक तथा किस पद पर सेवा करता था। वर्षों तक प्राप्त होता यही ज्ञान/अनुभव उनकी बुद्धि में परिवर्तित हो जाता है। ब्राह्मण या क्षत्रिय की सेवा करने का यह अर्थ नहीं था कि शुद्र उनके बदले कोई कार्य कर सकता था, परंतु वर्षों तक सेवा कर कोई शुद्र भी समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकता था। शूद्र को वार्त्ता में भाग लेने की अनुमति थी जिसमें कृषि, पशुपालन एवं व्यापार थे [10]। कुछ वर्षों तक सेवा कर बुद्धिमान शुद्र भी व्यापारी वर्ग में सम्मानजनक स्थान बना सकता था और धन भी कमा सकता था। बुद्धिमान/ज्ञानवान शूद्रों को मंत्रिमंडल में भी स्थान प्राप्त होता था।

सभी शुद्र सेवा कार्य में नहीं थे। ज्ञानार्जन की इच्छा शूद्रों को प्रदर्शन/अप्रदर्शन कला से संबंधित कार्यों की ओर ले जाता था। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में उन विषयों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है जिससे शूद्र अपनी आजीविका कमा सकते थे। चित्रकारी, नक्काशी, संगीत, गायन, नृत्य, अभिनय एवं अन्य अवर्गीकृत कौशल इसके भाग थे। कौशल एवं अनुभव के आधार पर शूद्रों को पारंपरिक धनार्जन के अलावा भी धनप्राप्ति के अवसर प्राप्त होते थे।

निर्माण उद्योग (मंदिर, जलाशय, राजगृह/राजभवन, उद्यान, नगर निर्माण इत्यादि) कला अकादमियों एवं संबंधित कार्य, कृषि, पशुपालन, व्यापार एवं अन्य बहुत से उद्योग शूद्रों द्वारा ही नियंत्रित किए जाते थे। वैश्यों के साथ शूद्र राज्य की अर्थव्यवस्था के निर्माण एवं प्रबंध के लिए उत्तरदायी होते थे।

कौटिल्य ने चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के कर्तव्यवर्णन के बाद जीवन के चार आश्रमों – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास के स्वधर्मों/कर्तव्यों का वर्णन किया है।

ब्रह्मचारी का स्वधर्म

जीवन का प्रथम भाग ब्रह्मचर्य आश्रम होता है एवं इस आश्रम में व्यक्ति ब्रह्मचारी (वेदों का विद्यार्थी) कहलाता है। ब्रह्मचारियों के निम्नलिखित कर्त्तव्य होते थे [11]-

  • अध्ययन
  • यज्ञ-होम आदि कार्य
  • भिक्षा द्वारा जीवनयापन
  • योग्य शिक्षक या उनके पुत्र/ शिष्य द्वारा प्रशिक्षण (ब्रह्मचारी जीवन पूर्ण होने तक)

ब्रह्मचर्य आश्रम ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए था। शिक्षा ग्रहण करना उनके जीवन के प्रथम चरण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था ताकि वे भविष्य में त्रयी का निर्वहन कर सकें। योग्य शिक्षक द्वारा विद्यार्जन की सलाह भी दी गई थी। गुरु की सेवा एवं उनके द्वारा बनाए गए नियमों का पालन छात्रजीवन का एकमात्र लक्ष्य होता था। यह प्रशिक्षण विद्यार्थियों को विनीत बनाने के लिए आवश्यक होता था। मन एवं बुद्धि का नियंत्रण प्रशिक्षण का मूल था। यह प्रशिक्षण आवश्यक था क्योंकि उन्हें अपने ज्ञान/अनुभव का लाभ शूद्र सहित अन्यों को भी देना होता था।

ब्रह्मचर्य आश्रम का प्रमुख उद्देश्य प्रथम पुरुषार्थ (धर्म) का अर्जन करना है l

गृहस्थ का स्वधर्म

चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम दूसरा आश्रम है। इस आश्रम का पालन करने वाला व्यक्ति गृहस्थ कहलाता है। गृहस्थ के निम्नलिखित कर्त्तव्य थे [12]

  • कर्त्तव्यानुसार उपार्जन एवं जीवन यापन करना
  • समान वर्ण परंतु असमान गोत्र में विवाह करना
  • संतान उत्पत्ति
  • देव-देवताओं एवं पूर्वजों की पूजा करना एवं उनका आदर करना
  • भगवान, पूर्वज एवं आश्रितों को भोजन देने के बाद ही भोजन ग्रहण करना

कुछ संशोधनों सहित अर्थोपार्जन, विवाह एवं संतानोत्पत्ति गृहस्थ जीवन के प्रमुख कर्त्तव्य थे। अर्थोपार्जन वर्णों के निर्धारित कर्त्तव्यों पर ही आधारित होना चाहिए। कर्त्तव्यों को मिलाना निषिद्ध था। समान गोत्र एवं असमान वर्णों में विवाह की अनुमति भी नहीं थी । संतानोत्पत्ति का अर्थ पत्नी के साथ असीमित एवं असामयिक संभोग नहीं था। पत्नी के साथ संभोग निर्धारित समय तक, पत्नी की इच्छा से एवं उसके स्वास्थ्य एवं दूसरे कारकों को ध्यान में रखकर किया जाता था।

कौटिल्य ने प्रथम तीन कर्त्तव्यों के लिए कारण बताए हैं [13] – स्वधर्म के पालन से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, परंतु इसके उल्लंघन से वर्णसांकर्य होता है। इससे यह संदेश है की स्वधर्म के उल्लंघन से स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती है।

ऐसा ही संदेश श्रीमद्भगवद्गीता में दिया गया है जहां भगवान श्री कृष्ण कहते हैं [14] – यदि दूसरे का धर्म अपने धर्म से श्रेष्ठ हो तब भी अपने धर्म का पालन करना चाहिए। अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाए तो श्रेष्ठ है परंतु दूसरे के धर्म का पालन करना भयानक स्थिति उत्पन्न करता है।

वर्णसांकर्य के बारे में हमें श्रीमद्भगवद्गीता से इसी प्रकार का संदेश पुनःप्राप्त होता है। अर्जुन कहते हैं – धर्म का पालन नहीं करने से नारियों में अधमता होती है एवं ऐसी नारी वर्णसंकर को जन्म देती है [15]। अर्जुन  पुनः कहते हैं – ऐसी संतानें अपने पूर्वजों सहित सभी को नरकगामी बनातीं हैं एवं अंततोगत्वा समाज में कुलधर्म एवं जातिधर्म महत्वहीन हो जाता है [16]। ऐसे लोग नरक को प्राप्त करते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि श्रीमद्भगवद्गीता एवं कौटिल्य का संदेश एक ही है।

इस आश्रम का प्रमुख उद्देश्य अन्य दो पुरुषार्थ- अर्थ एवं काम को प्राप्त करना है।

वानप्रस्थ का स्वधर्म

चार आश्रमों में वानप्रस्थ तीसरा आश्रम है। वानप्रस्थ के मुख्य कर्त्तव्य निम्नलिखित थे [17] –

  • ब्रह्मचर्यम् (अनासक्ति)
  • भूमि पर सोना
  • शिखा रखना एवं चर्म धारण करना
  • यज्ञ-होम आदि करना
  • देवी देवताओं एवं पूर्वजों का आदर करना
  • कंद-मूल-फल आदि खाना

वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति सांसारिक चीजों से विमुख होने लगता है और अगले आश्रम की तैयारी करता है। यह आश्रम व्यक्ति को सांसारिक सुखों एवं अन्य वस्तुएं क्षणिक हैं, यह स्वीकार करने के लिए तैयार करता है। निर्धारित समय पर व्यक्ति का सांसारिक चीजों से बाहर निकलना स्वयं एवं दूसरों के लिए अच्छा होता है। इसके लिए सर्वप्रथम इच्छाओं पर नियंत्रण आवश्यक है। शारीरिक सुख एवं भोजन पर नियंत्रण क्रमशः दूसरा एवं तीसरा चरण है।  ब्राह्मण एवं क्षत्रिय द्वारा यह चरण अपेक्षित था।

इस आश्रम का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को उसकी पूरित इच्छाओं  जैसे अर्थ और काम से मुक्ति की और जाने के लिए सज्ज करना था।

परिव्राजक (संन्यासी) का स्वधर्म

जीवन के अंतिम चरण में व्यक्ति से परिव्राजक कि भांति जीवन जीना अपेक्षित होता है। परिव्राजक के प्रमुख कर्त्तव्य थे [18] –

  • संयतइन्द्रियत्त्वम् (इंद्रियों पर नियंत्रण)
  • अनारम्भ (निष्क्रिय जीवन)
  • निष्किञ्चनत्त्वम् (सांसारिक वस्तुओं से मुक्ति)
  • सङ्गत्यागः (सङ्गत्याग)
  • भैक्षव्रतम् (मांग कर भोजन करना)
  • अरण्यवास (जंगल में रहना)
  • शौचम् (बाह्य-अभ्यंतर स्वच्छता)

नि:संदेह उपरोक्त सभी कर्त्तव्य अन्य सभी आश्रमों के कर्त्तव्यों से दुष्कर हैं और व्यक्ति की मनोदशा को परख सकते हैं। इस प्रकार का जीवन जीना वैसा है कि जैसे आप इस संसार में है ही नहीं। जीवन के इस चरण में व्यक्ति यह अनुभव करता है कि वह इस ब्रह्मांड का अति-सूक्ष्म हिस्सा है।

जीवन का यह चरण (आश्रम) व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ (जिसका मन-बुद्धि स्थिर हो) बनाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अठारह श्लोकों में स्थितप्रज्ञ के लक्षण, कार्य एवं लाभों का अति सुंदर ढंग से वर्णन किया है [19]। कोई उन श्लोकों को परिव्राजक के कर्त्तव्य समझने के लिए एवं यह अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्ति में कैसे सहाय करता है, यह जानने के लिए देख सकता है।

सभी वर्गों के सामान्य धर्म

स्वधर्म के अलावा कौटिल्य ने सभी व्यक्तियों के लिए सामान्य धर्म बताए हैं, वे हैं [20] –

  • अहिंसा
  • सत्य
  • शौच (बाह्य-अभ्यंतर स्वच्छता)
  • अनसूया (ईर्ष्या से मुक्ति)
  • अनृशंस्यम् (करुणा) और
  • क्षमा

यह ध्यान देने योग्य है कि इस सामान्य निर्देशों के तीन स्तर हैं – मानसिक, वाचिक एवं कायिक। सभी व्यक्तियों को उपरोक्त छः त्रिस्तरीय सामान्य धर्म का जीवनपर्यंत पालन करना चाहिए। यह भी ध्यान देने योग्य है की उपरोक्त क्रियाकलाप अपने-अपने वर्णों के स्वधर्म  के अनुसार करना चाहिए। धर्मशास्त्रों में इन शब्दों को विस्तार पूर्वक बताया गया है।

एक संस्कृत श्लोक से सामान्य धर्म का अभिप्राय विभिन्न वर्णों के स्वधर्म के अनुसार समझा जा सकता है।

क्षमा शत्रौ च मित्रे च यतीनामेव भूषणम्।
अपराधिषु खलेषु नृपाणां सैव दूषणम्।।

क्षमा देना एक यति का स्वाभाविक गुण है क्योंकि उनका अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है और उनकी महानता इसी में है किन्तु एक राजा के लिए यह उपयुक्त नहीं, विशेषकर जब आतंकवादियों या अपराधियों को सजा देना होता है l क्योंकि राजा को सुशासन सुनिश्चित करना होता है, क्षमा करना राजा के लिए भूषण न होकर दूषण है।

राजा के कार्य

कौटिल्य ने न सिर्फ कर्त्तव्य /उत्तरदायित्व निर्धारित किए बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि यह उचित ढंग से लागू हो। कौटिल्य ने यह भी सुनिश्चित किया कि सतत निगरानी व्यवस्था भी स्थापित हो। उन्होंने यह उत्तरदायित्व राजा को सौंपा, जिसका समाज में उच्चतम स्थान होता था।

कौटिल्य ने राजा को दो चीजें सुनिश्चित करने की आज्ञा दी [21] –

  • वर्णों के कर्तव्यों में कोई मिलावट न हो और वह दूषित ना हो
  • सभी चार वर्ण अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें

वैसा राजा जो अपने कर्त्तव्यों का पालन करता था, वो न केवल अपने कार्यकाल में अपितु उसके बाद भी सुख प्राप्त करता था। वह जब तक जीता था सम्मान प्राप्त करता था। इस तरह से राजा का कार्य स्वधर्म को पुष्ट करने एवं त्रयी के निर्वहन में प्रमुख था।

त्रयी एवं स्वधर्म को सुनिश्चित करने के लिए कौटिल्य ने राजा को दंडनीति का प्रयोग करने की सलाह दी थी [22]।। दंडनीति का प्रयोग कर राजा त्रयी के चार स्तर प्राप्त कर सकता था। वे चार स्तर थे –

  • अलब्धस्य लाभः (स्थापना)
  • लब्धस्य परिरक्षणम् (सुरक्षा)
  • रक्षितस्य विवर्धनम् (अवलंबन)
  • वृद्धस्य प्रतिपादनम् (कार्यसिद्धि)

दंडनीति दो धारी तलवार की भांति है। कौटिल्य ने राजा को इसे बुद्धिपूर्वक प्रयोग करने की सलाह दी है। कौटिल्य ने कहा है कि एसा बुद्धिमान राजा अपनी प्रजा द्वारा पूजा जाता है [23]। मनु ने भी राजा को ऐसा ही निर्देश दिया है [24]। उन्होंने राजा को चेतावनी भी दी है कि यदि दंडनीति का उचित ढंग से प्रयोग नहीं किया गया तो वानप्रस्थ और परिव्राजक क्रोधित एवं विक्षुब्ध हो सकते हैं l गृहस्थों की मनःस्थिति तो अवश्य ही दूषित होती है। दंडनीति का अनुचित प्रयोग समाज को पतन की ओर ले जाता है। दंडनीति का समुचित प्रयोग राजा के कार्यों को आसान बना सकता है और जनता भी अभ्यस्त हो जाती है। यह राजा को उसके राज्य में धर्म, अर्थ एवं काम के प्रबंध में सहयोग करता है।

उपसंहार

यहां दो संदेश ग्रहण किये जा सकते हैं, एक राजा के लिए एवं दूसरा प्रजा के लिए। राजा संपूर्ण व्यवस्था को लागू करने वाला उसकी सुरक्षा करने वाला एवं प्रबंधक होता है जबकि प्रजा को उसका अनुसरण करना है। आज्ञाकारी लोगों के लिए कौटिल्य ने कहा है –


व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः।
त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति।।

[KAS 1.3.17]

वर्णाश्रम की जो स्थिति बनाई गई है उसी में आर्यों की मर्यादा सन्निहित है। इस वर्णाश्रम की स्थिति से लोग प्रसन्न होते हैं उन्हें दुःख नहीं होता है।

योग्य एवं बुद्धिमान राजा के लिए कौटिल्य ने कहा है –

चतुर्वर्णाश्रमो लोको राज्ञा दण्डेन पालितः।
स्वधर्मकर्माभिरतो वर्तते स्वेषु वेश्मसु।।
[KAS 1.4.16]

चारों वर्णों के लोग प्रशासन के द्वारा पालित-पोषित होते हैं। लोग उसी प्रशासन के भय से अपने आश्रम में अभिरत रहते हैं।

संदर्भ –

1. सामर्ग्यजुर्वेदास्त्रयस्त्रयी (KAS 1.3.1)
2. अथर्ववेदेतिहासवेदौ च वेदाः (KAS 1.3.2)
3. पुराणमितिवृत्तमाख्यायिकोदाहरणं धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतीतिहासः (KAS 1.5.14)
4. शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दोविचितिर्ज्योतिषमिति चाङ्गानि (KAS 1.3.3)
5. एष त्रयीधर्मश्चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां च स्वधर्मस्थापनादौपकारिकः (KAS 1.3.4)
6. स्वधर्मो ब्राह्मणस्याध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्च (KAS 1.3.5)
7. क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च (KAS 1.3.6)
8. वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वणिज्या च (KAS 1.3.7)
9. शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा वार्त्ता कारुकुशीलवकर्म च (KAS 1.3.8)
10. कृषिपाशुपाल्ये वणिज्या च वार्त्ता (KAS 1.4.1)
11. ब्रह्मचारिणः स्वाध्यायोऽग्निकार्याभिषेकौ भैक्षव्रतत्वमाचार्ये प्राणान्तिकी वृत्तिस्तदभावे गुरुपुत्रे सब्रह्मचारीणि वा (KAS 1.3.10)
12. गृहस्थस्य स्वकर्माजीवस्तुल्यैरसमानर्षिभिर्वैवाह्यमृतुगामित्वं देवपित्रतिथिभृत्येषु त्यागः शेषभोजनं च (KAS 1.3.9)
13. स्वधर्मः स्वर्गायानन्ताय च (KAS 1.3.14), तस्यातिक्रमे लोकः सङ्करादुच्छिद्येत (KAS 1.3.15)
14. श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। (BG 3.35)
15. अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।। (BG 1.41)
16. BG 1.42-44
17. वानप्रस्थस्य ब्रह्मचर्यं भूमौ शय्या जटाऽजिनधारणमग्निहोत्राभिषेकौ देवतापित्रतिथिपूजा वन्यश्चाहारः (KAS 1.3.11)
18. परिव्राजकस्य संयतेन्द्रियत्वमनारम्भो निष्किञ्चनत्त्वं सङ्गत्यागो भैक्षव्रतमनेकत्रारण्ये च वासो बाह्याभ्यन्तरं च शौचम् (KAS 1.3.12)
19. श्रीमद्भगवद्गीता 2.54-72
20. सर्वेषामहिंसा सत्यं शौचमनसूयाऽऽनृशंस्यं क्षमा च (KAS 1.3.13)
21. तस्मात्स्वधर्मं भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्। स्वधर्मं संदधानो हि प्रेत्य चेह च नन्दति।। (KAS 1.3.16)
22. आन्वीक्षिकीत्रयीवार्त्तानां योगक्षेमसाधनो दण्डः, तस्य नीतिर्दण्डनीतिः (KAS 1.4.3)
23. यथार्हदण्डः पूज्यः (KAS 1.4.10)
24. तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात् कार्यं वीक्ष्य महीपतिः। तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राज भवति सम्मतः।। (MS 7.140)
25. सुविज्ञातप्रणीतो हि दण्डः प्रजा धर्मार्थकामैर्योजयति (KAS 1.4.11)

Notes –

  1. This article was originally written in English and published by IndicToday on 26-Oct-2020. Link is https://www.indictoday.com/long-reads/svadharma-kautilya-arthashastra/
  2. Hindi translation of this article is done by Mr. Pawas Kumar Indra Guru and published by IndicToday on 16-Dec-2020. Link is https://www.indictoday.com/bharatiya-languages/svadharma-arthashastra-hindi/

Published by Hiren Dave

Student of Sanskrit, History, Epigraphy, Literature and Indology contents.

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